क्या मैं सही थी - 1 S Sinha द्वारा फिक्शन कहानी में हिंदी पीडीएफ

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क्या मैं सही थी - 1

भाग 1


एक औरत की कहानी जिसे दूसरे धर्म में शादी करने के बाद मुसीबतों का सामना करना पड़ा पर उसने खुद को संभाला .....

कहानी - क्या मैं सही थी


किसी दिन सुबह में बिस्तर से उठते ही दिन भर मन में अजीब सी उदासी छायी रहती है . अपने आसपास सब ठीक ही दिखता है फिर भी मन दिन भर उद्विग्न सा रहता है . और किसी दिन सुबह से ही दिन बड़ा खुशनुमा लगता है हालांकि ख़ुशी की कोई खास वजह नहीं होती . आज जब मैं सो कर उठी मौसम अच्छा है पर मन भारी भारी और उदास सा लग रहा है . मैंने सोचा कि आज कहीं बाहर नहीं जाऊंगी .वैसे जब घर में होती हूँ कुछ लिखने पढ़ने बैठ जाती हूँ , पर आज मूड नहीं था . सोचा घर में रह कर घर की सफाई कर लूंगी , बहुत दिन से घर अस्त व्यस्त पड़ा है .


मैंने मुंह हाथ धो कर टोस्ट और चाय बनायी .सबसे पहले मैंने किताबों वाली आलमारी ठीक करने की सोची . चाय की चुस्कियों के बीच में ही उठ कर आलमारी से निकाल कर किताबों को झाड़पोंछ कर रखने लगी . तभी मेरे हाथ एक पुराना एल्बम लग गया . मैं उसे लेकर बैठ गयी और एक एक कर पुरानी तस्वीरें देखती गयी . हर तस्वीर के साथ मैं अपने पास्ट में चली जाती और कुछ देर के लिए वे दृश्य मेरी आँखों के सामने आ जाते .


मेरी चाय ठंढी हो गयी थी , मैं उठ कर उसे दुबारा माइक्रोवेव में गर्म कर ले आयी . फिर आगे के पन्ने पलटती . तभी एक तस्वीर पर आकर मैं थम गयी , आँखें नम हो गयीं . 15 साल पहले की यादें मेरे पूरे शरीर में सिहरन पैदा कर रही थीं . स्कूल के दिनों से ही एक लड़का मुझे पसंद करने लगा था . मैं भी उसकी ओर खिंचती चली गयी . स्कूल के बाद हम दोनों कॉलेज में भी साथ रहे . दोनों ने जन्म जन्म तक साथ निभाने का वादा किया था यह जानते हुए भी कि मैं एक जैन हूँ और वह दूसरे धर्म का जिसे मेरे माता पिता कभी कबूल नहीं करेंगे . उनकी मर्जी के खिलाफ मैंने उससे निकाह किया .


ससुराल में मुझे किसी तरह की तकलीफ नहीं थी . मुझे माँस खाने लिए कभी मजबूर नहीं किया गया . थोड़ी बहुत पाबंदी थी , पर कुल मिला कर मैं भी खुश थी और मेरे पति को भी मुझसे कोई शिकायत नहीं थी . मैं एक मिशनरी स्कूल में पढ़ाती थी . मेरी शादी के पांच साल हो चुके थे , मैं दो बच्चों की माँ बन चुकी थी - बड़ा बेटा

कबीर और बेटी मीना .


इसी बीच एक लड़की से मेरे पति का मेल जोल बढ़ने लगा . वह लड़की मेरे ससुर की मुंहबोली बहन की लड़की थी .वह अपने माता पिता की अकेली औलाद थी और उसके परिवार की हैसियत मेरे ससुराल से काफी अच्छी थी . वह अक्सर हमारे यहाँ आया करती . उसके प्रेम और धन की लालच में मेरे पति ने महज तीन लब्जों से अपना रिश्ता मुझसे तोड़ लिया .शुरू में मैंने विरोध किया पर इनके साथ साथ मेरे सास ससुर की भी यही मर्जी थी .


मेरी शादी के बाद मेरे माता पिता ने मुझे मृत मान लिया था , शायद जीते जी मेरा क्रिया कर्म भी कर दिया हो . मेरे भैया अमेरिका में थे . उन्होंने माता पिता को बहुत समझाने की कोशिश की पर वे विफल रहे . मेरे माता पिता अपनी सभी संपत्ति बेच कर अमेरिका सैटल करने वाले थे . मेरी एक छोटी बहन थी माया , वह अभी कॉलेज में थी . पापा ने दो रूम का एक फ्लैट उसके नाम ले रखा था . वह उसी में रहती थी . अक्सर मेरी मौसी या बुआ कोई न कोई उसके साथ रहती थी . माया ने मुझे बताया था कि वह भी अमेरिका में ही सैटल करने वाली है .


मेरी शादी के बाद भी माया हमेशा मेरे सम्पर्क में रही .वह अक्सर मुझसे बात किया करती और कभी कभी मिलती भी थी . उसे मुझसे कोई शिकायत नहीं थी . मेरे तलाक की बात सुनकर वह दुखी हुई . उसने अपनी कसम देकर मुझे अपने साथ रहने को कहा . इत्तफाक से उस समय वह अकेली थी . उसने मुझे कसम दे कर अपने यहाँ बुलाया .


मैंने तलाक को अपनी नियति समझ लिया . पर मेरी एक शर्त थी कि दोनों बच्चों पर इनका कोई हक़ नहीं होगा . मेरी सौतन भी यही चाहती थी , उसे सिर्फ अपनी कोख का बच्चा मंजूर था . मेरे शौहर को भी नयी बीबी चाहिए थी और साथ में उसकी दौलत . मेरी शर्त उन्होंने भी मान ली . मैं अपने दोनों बच्चों के साथ माया के साथ रहने लगी .


मेरे माता पिता दोनों भैया के पास अमेरिका रहने लगे थे . भैया ने मुझे रूपये देने की पेशकश की थी . मैंने ही मना कर दिया , कहा था फ़िलहाल मुझे पैसों की जरूरत नहीं है अगर भविष्य में अगर जरूरत पड़ी तो ले लूंगी . मेरे दोनों बच्चों की पढ़ाई मेरे ही स्कूल में हुई , स्कूल ने उनकी फीस माफ़ कर दी , यह मेरे लिए बहुत बड़ी राहत की बात थी . .


अभी माया के साथ रहते मुझे एक महीना भी नहीं हुआ था कि मेरी विधवा बुआ भी वहां आ गयीं . मैं उऔर मेरे दोनों बच्चे उनकी नजर में विधर्मी थे . मैं उन्हें फूटी आँखों से भी नहीं सुहाती थी और मेरे दोनों बच्चों को तो वह अपने पास भी नहीं फटकने देतीं . कभी गलती से बच्चे उनके कपड़े छू देते तो वह फिर से स्नान कर कपड़े बदलती थीं . वे अक्सर मुझे बोलतीं “ तू तो अधर्मी है , पता नहीं अब तेरा कौन सा धर्म रह गया है ? और तेरे बच्चे तो मलेच्छ हैं , इन्हें मुझसे दूर रखना अगर यहाँ रहना है तो . बेहतर है तू पूरे रस्म रिवाज के साथ पुनः अपने धर्म में वापस आ जा या फिर कहीं अलग अपना ठिकाना खोज ले . “


मैं अपने अपमान को बर्दाश्त कर सकती थी पर मेरे बच्चों को कोई हेय दृष्टि से देखे , यह मुझे मंजूर नहीं था . मैंने माया का घर छोड़ दिया . मैं उसी शहर में एक फ्लैट ले कर अलग रहने लगी . मैं खुद नहीं समझ पा रही थी कि मैं अब किस धर्म की कहलाऊंगी , बल्कि मैं यह समझना भी नहीं चाहती थी . बस एक इंसान की हैसियत से अपने दोनों बच्चों की परवरिश करना ही मेरा धर्म रह गया था . मुझे किसी धर्म या भगवान् से कुछ लेना देना नहीं था . अच्छे या बुरे इंसान हर धर्म में मिलेंगे .


क्रमशः